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तुम पढ़ते मन हमारा

तुम पढ़ते मन हमारा, हम तुम्हारा मन पढ़ लेते, यूं न रहते चुपचाप- चुपचाप, काश एक दफ़ा हम मिल लेते। हां, दूरियां हैं, फ़ासले हैं, और न कभी दिल मिले हैं, फिर ये क्या हुआ है? जाने किसने मन छुआ है। बैचेनी, इंतजार... और यही सिलसिला बार-बार.. कभी प्यार, कभी तक़रार, पर किससे प्यार, पर किससे तक़रार, बिन बातों का सिलसिला, बिन सिलस‍िले की बातें। रोज झलक भरा दिन, रोज ख्‍़वाब भरी रातें। कभी आग़ाज़, कभी अंज़ाम । इंतहा कुछ - कुछ, कुछ- कुछ वीराना। रात से दिन, दिन से रात। वही हक़ीक़त, वही अफ़साना...

आज हम जागे और रात सोई रही।

ऑंखों ने झपने का नाम न लिया फुरसत से भी कोई काम न लिया। लम्‍हे बदल बदल ये अंजाम किया है हमने पल भर भी न आराम किया है। सुबह कुछ शब्‍द जागे धुन खोई रही। आज हम जागे और रात सोई रही।

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