कैसे हैं हम?

 कैसे हैं हम?
क्‍या इसका कोई उत्‍तर है।
हम हर समय बदलते हैं, अलग- अलग होते हैं।
हम अच्छे हैं, बुरे हैं।
सच्चे हैं, झूठे हैं।
दोस्त हैं, दुश्मन हैं।
मज़े में हैं, फसे में हैं।
गुलाम हैं, आजाद हैं।
मूक हैं, वाचाल हैं।
अकारथ हैं, सकारथ हैं।
बुद्धु हैं, होशियार हैं।
स्‍वस्‍थ हैं, बीमार हैं।
उदास हैं, प्रसन्न हैं।
रीझे हैं, खिन्न हैं।
धनी हैं, फक्कहड़ हैं।
रुके हैं,, धुमक्कड़ हैं।
चुलबुले हैं, धीर हैं।
चंचल हैं, गंभीर हैं।
निरंग हैं, सतरंगे हैं।
शोर हैं, शान्ति हैं।
तर्क हैं, भ्रांति हैं। 
व्यंग हैं, कविता हैं।
गीत हैं, ग़ज़ल हैं।
राज़ हैं, उजागर हैं।
मीत हैं, पृथक हैं।
आलस हैं, सजग हैं।
रीत हैं, विपरीत हैं।
शीत हैं, ग्रीष्म हैं।
भूखे हैं, अफरे हैं।
सिमटे हैं, विखरे हैं.....

...मेरा जीवन इन सभी विरोधाभास और पूरकों की मिलावट हैं। इस मिलावट से बना मिलाजुला सा एक व्यक्ति है और वह "मैं " हूं ..........






( यहं "मैं " के मायने हर उस व्यक्ति से हैं जो इसे पढ़ रहा है। )

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