मेरी कविताएं जिनकी शुरुआत अचानक ही वैचारिक प्रस्फुटन के साथ हो गई। हर मनोदशा में बिना कुछ छुपाए शब्दों में सब उजागर कर दिया है यहॉं। हालॉंकि कुछ कविताओं कि रचना नौसीखिए कि तरह जानबूझ कर भूमिका बनाए बिना ही की है पर लिखते समय यही अच्छा लगा इसलिए लिख डाली और कहडाली दिमागी उधेड़बून।
ज़िंदगी क्या है ? ये बताएं कैसे ? तेरे माफ़िक नज़र आएं कैसे ? तूने ढंक रखा है, अपनी आंखों को, सोच तुझे नजर आएं कैसे ? चाहत तुझ में भी है, और मुझ में भी, है इश्क़ की आग दोनों जानिब, तूं माहिर है इसमें, पर हम छुपाएं कैसे?